डाली

हरी डाल सावन में
गीत गाती थी
आसंमा को देख
मुस्कुराती थी
झूम उठती थी हवा
के हिलोर से
मस्त हो सब को
भाती थी
धुप में बाहें फैला
तकती थी आकाश
सुमधुर सपने नभ
को सुनती थी।
मन की धरती हरिया
जाती थी।
पात -पात पे मुस्कान
आती थी।

इक दिन सूखी डाल को
देख रो पड़ी
व्याकुल हिय से
कॉप कर चुप रही
किसने अनगिनत प्रहार
डाल पे किये थे
देख कर स्वयं वृक्ष भी
रो पड़े थे।

मन चोट करने वाले को
भुला नहीं पाता
कुठारा घात सह के
कुछ कर नहीं पाता
निष्प्राण हो डाल ने
जीना सीख लिया था
रह- रह के विधाता से
पीड  कहना सीख
लिया था।
एक दिन फिर कोई आया
मगर पेड़ के पास
कुल्हाडी रख बैठ गया,
इतने  में सर्प आ पहुंचा।
वहाँ , डाल ने
आवाज़ ईश्वर को
लगाई सुनते हो
तुम बेजुबान की भी
पर इतनी नहीं निष्टुर
किसी के प्राण लूँ
हो सके तो कुछ और
सजा देना इसे
मेरी तरह जीते जी
निष्प्राण कर देना इसे
सर्प। ने सुना दंश दे
मुस्कुरा गया।
आज इसमें प्राण है
मर ना पायेगा अभी।
दुसरो पे घात जो करते
दिन रात है,
एक दिन  ईश्वर भी करते
उन्ही पे प्रहार है।
आराधना राय अरु

Comments

Popular posts from this blog

याद

कोलाहल

नज्म बरसात